सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

                     नमो की  हुंकार रैली और आम जनता के साथ  हादसा


किसे दोष दिया जाय रैली को या प्रशासनिक  विफलता को ? जो कुछ हुआ पटना में वह बहुत ही निंदनीय था। यदि विरोध ही करना था  आतंकियों को तो नरेंद्र मोदी को काले झंडे  दिखाते, विरोध प्रदर्शित करने के अन्य तरीके भी अपनाये जा सकते थे लेकिन मानवता का यह क्रूर रूप  क्या सही था? कई घरों के लोग घायल हुए और मर गए , हो सकता है कि वे रैली में जाने वाले नहीं होंगे , पर उनके साथ हादसा तो हुआ न। आतंक फैल जाने से रैली तो नहीं रुकी , यह भी लाभ हो सकता है कि नरेद्र मोदी और अधिक प्रसिद्ध हो जाएँ  लेकिन आतंकी के प्रति जनता की  सहानुभति तो नहीं पैदा हुई बल्कि नफरत की  आग और भड़क उठी , पुनः धर- पकड़ होने लगे , जो पकड़े  गए उनके प्रति जनता का मन उग्र ही हुआ।  मेरा मन बार-बार यही सोंचता है कि  कब वो दिन आएगा जब सभी आतंकी समाज की  तरक्की के बारे में सोचेंगे , राष्ट्र की उन्नति ही उनका मुख्य मकसद होगा ? 
               राजनितिक दल अपनी राजनितिक रोटियां सेंकने में लगे हैं और जनता जो झेल रही है उसका दर्द तो वही जानते हैं जिनके अपने  इस कांड के बाद उनसे सदा के लिए दूर हो गए। सत्ता बदलेगी या फिर नहीं ये तो  चुनाव के बाद ही पता चलेगा लेकिन कोई भी पार्टी ये दावा नहीं कर सकती कि उनके शासन में यह सब नहीं होगा। नरेन्द्र मोदी को सुनना बहुत लोग चाहते थे   क्योकि अधिकतर घरों के लोग  टीवी से चिपके ही रहे , गांधी मैदान की  भीड़ भी यही बता रही थी और यदि हादसा नहीं होता तो और भीड़ बढ़ ही जाती। आगे राजनीति में क्या होगा यह तो समय ही बतायेगा। 

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

लालू की विरासत

                                     लालू की विरासत 

लालू जी तो अब जेल से ही अपनी विरासत संभालेगे लेकिन उनके बिना उनकी पार्टी का क्या होगा ये तो सभी जानते हैं।  बिहार के लोग लालू राज का आनंद भोग चुके हैं और अब लगता नहीं, पुनः राबड़ी का आनंद लेंगे फिर भी सत्ता का सुख बड़ा ही प्यारा होता है तो जुगत तो लगानी  ही होगी उनकी पार्टी को क्योंकि  बहुत दिनों से कुछ भी नसीब नहीं हो रहा राजद नेताओं को , नितीश जी तो पूरी मुस्तैदी से विराजमान हैं। इधर रामविलास पासवान के पास तो गिनती के नेता हैं और वो भी पारिवारिक लोग ही , देखते हैं चिराग पासवान कौन सा तीर मारते  हैं बेचारे हीरो बनने गए थे वापस पिता की विरासत सँभालने आना पड़ा।  लालू तो अपने बेटे तेजस्वी को जनता के बीच नेता के रूप में प्रस्तुत कर चुके है , अब देखना ये है , माँ - बेटे मिलकर पार्टी की साख बचा पाते  हैं या नहीं। 

               अब तो लगता है देश में माँ-बेटे और बाप - बेटे की पार्टी रह गयी है क्योंकि उमर अब्दुल्ला और अखिलेश यादव तथा हेमंत सोरेन उदाहरण के रूप में हैं ही तो क्या राबड़ी भी सोनिया गाँधी की तरह सशक्त माँ बन पायेगी ? 

              फिलहाल तो लालू के जेल जाने पर खुशियाँ मनाने वाले भी बहुत हैं और दुःख मनाने वाले भी।  समय सारे सवालों के जबाब स्वयं देगा। अभी तो नमो की ताकत को देखना है।